शनिवार, 10 मार्च 2012

दोहावली .... भाग - 3 / संत कबीर


जन्म  --- 1398
निधन ---  1518
 
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30

क्रमश:
दोहवाली --- भाग –1 / भाग - 2

11 टिप्‍पणियां:

  1. शुक्रिया संगीता जी...
    दोहे पढ़ कर बहुत अच्छा लगा....

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  2. आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
    सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान .....sahi bat hmen ye bat kabhi nahi bhulni chahiye.

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  3. जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
    तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥

    संत कबीर के दर्शन में समाज का खंडन नहीं बल्कि मंडन है। उन्होंने जीवन में जो कुछ सीखा समाज से सीखा और जो सिखाया वह समाज को सिखाया। कबीर ने समाज का बृहद्‌ स्वरूप प्रस्तुत किया है। संत समाज ही उनकी दृष्टि में आदर्श समाज है क्योंकि संत का संतत्व उसके जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों पर निर्भर करता है। संत जीवन की पहली कसौटी उसका लौकिक व्यवहार और स्वयं सिद्धत्व का गुण है। संत अपनी सदाचारी वृत्तियों से असंत को भी संत बना देता है। इसलिए संतों की महिमा का गुणगान कबीर ने मुक्त कंठ से किया है।एक लंबे अंतराल के बाद भी कबीर के दोहे आज भी दीवन की हर कसौटी पर खरे उतरते हैं एवं उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उनके कालखंड में थे । अति सुंदर प्रयास । मेरे पोस्ट पर आपकी आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद

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  4. कबीर के दोहे आज भी प्रासंगिक हैं... बहुत सुद्नर दोहे...

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  5. जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
    कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥

    कितने सुंदर वचन...कबीर की वाणी अनमोल है, आभार!

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  6. जीवनोपयोगी तथ्यों को संत कबीर ने दोहों में समेटा है....आपने बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से इन्हें प्रस्तुत किया है...बधाई!

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  7. आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
    सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
    गज़ब की सीख मिलती हैं इन दोहों से.

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  8. इन अनमोल मोतियों को ब्लॉग पे बिखेरने के लिए आपका आभार .दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं गाय .

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  9. जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
    कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों 'धीरज' रोग ॥ 26
    गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
    हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30
    इन अनमोल मोतियों को ब्लॉग पे बिखेरने के लिए आपका आभार .

    अर्थात जहां एहंकार है वहां सारी आपदाएं आ खड़ी होतीं हैं .

    संदेह अर्थात किसी पे शक करना मानसिक रोग का लक्षण हैं .(शिजोफ्रेनिया ,और बाईपोलर इलनेस दोनों में मौजूद रहता है शक ).ये दीर्घावधि रोग हैं मेजर डिजीज हैं .आसानी से नहीं जायेंगे .कृपया चेक करें ;'धीरज 'के स्थान पर दीर्घ (दीरघ )तो नहीं है .

    गाली देने से कलह कष्ट और मौत सभी नज़दीक आने लगतें हैं .जो दयनीय मानता है खुद को ,निर्लेप हैजिसने क्लेश से हार मान ली है ,किनारा कर गया है जो क्लेश से गाली गलौच से वही साधू है जो संलग्न है लिप्त है कलह क्लेश में वही नींच है .

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