बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काव्य शस्त्र-8 :: आचार्य भट्टोद्भट

आचार्य भट्टोद्भट :: आचार्य परशुराम राय

आचार्य भट्टोद्भट एक कश्मीरी ब्राह्मण थे। आचार्य दण्डी के ये परवर्ती आचार्य हैं। ये कश्मीर के राजा जयादित्य की राजसभा के सभापति थे। इनका काल आठवीं शताब्दी का अन्तिम तथा नवीं शताब्दी का प्रारंभिक भाग माना जाता है।

आचार्य उद्भट के तीन ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। तीन ग्रंथों में केवल काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ काव्यालंकार सारसग्रंह ही मिलता है। दूसरा ग्रंथ भामहविवरण है, जो आचार्य भामह के काव्यलंकार पर टीका है। इसके अतिरिक्त आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र पर इन्होंने एक टीका भी लिखी थी। क्योंकि शार्ङ्गदेव ने अपने संगीतरत्नाकर नामक ग्रंथ में नाट्यशास्त्र व्याख्याताओं में इनके नाम का भी उल्लेख किया हैः

व्याख्यातारो भारतीये लोल्लटोद्भटशङ्कुकाः।

भट्टाभिनवगुप्तश्च श्रीमत्कीर्तिधरोऽपर।

तीसरा ग्रंथ कुमारसंभव नामक काव्य है। इसी नाम से महाकवि कालिदास द्वारा विरचित ग्रंथ भी है। दोनों की कथावस्तु एक है, लेकिन ग्रंथ अलग-अलग हैं।

काव्यालंकार सार गंग्रह में कुल 79 कारिकाएँ हैं और 41 अलंकारों के लक्षण दिए हैं। पूरा ग्रंथ छः वर्गों विभक्त है। इस ग्रंथ में उदाहरण के रुप में आचार्य उद्भट ने अपने काव्य ग्रंथ कुमारसम्भव से ही लिए हैं।

यहाँ उल्लेखनीय है कि पुनरुक्तवदाभास, काव्यलिंग, छेकानुप्रास, दृष्टांत और संकर ये पाँच अलंकार काव्यालंकार सारसंग्रह में ही मिलते हैं। इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह और दण्डी के ग्रंथों में नहीं मिलते।

उत्प्रेक्षावयव, उपमा-रूपक और यमक अलंकारों को आचार्य भामह और दण्डी उत्प्रेक्षा के अन्तर्गत मानते हैं, किन्तु उद्भट इससे सहमत नहीं हैं। इसी प्रकार आचार्यच दण्डी ने अपने ग्रंथ काव्यादर्श में लेश, सूक्ष्म तथा हेतु अलंकारों की भी चर्चा की है, जबकि आचार्य भामह उनका निषेध करते हैं और आचार्य उद्भट ने तो इनका उल्लेख ही नहीं किया है।

इसके अतिरिक्त रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वि, समाहित और श्लिष्ट अलंकारों के निरूपण भामह और दण्डी के ग्रंथों में मिलते तो हैं, लेकिन उनके लक्षण (परिभाषा) स्पष्ट नहीं हैं। इन अलंकारों के स्पष्ट लक्षण आचार्य उद्भट के काव्यालंकार सार-सग्रंह में ही मिलते हैं और ये तथा पुरुक्तवद्भास आदि पाँच अलंकार काव्यशास्त्र के लिए आचार्य. उद्भट की अनुपम देन हैं।

आचार्य उद्भट के काव्यालंकार सारसग्रंह की दो टीकाएँ मिलती हैं-

प्रतीहारेन्दुराजकृत ‘लघुविवृति’ और राजनक तिलक की उद्भटविवेक।

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